मैंने देखा ,
वो कुछ मांग रही थी
शायद वह कुछ मांग ही रही थी ,
मैले कुचैले पते वसन में
लज्जा से मारे सिकुडे तन में
आंसू भरे हुए नयन में
वो वुभुक्षा कि आग में जल रही थी
प्रकृति कि क्रूरता मे पल रही थी
आदमियत का माखौल उडाते हुए
खुद को जानवर में बदल रही थी
इंसानियत को जानवर में बदल रही थी
इंसानियत को शायद यही बात खल रही थी
अपने मैले पते वसन से
अपने तन को ढँक रही थी
पेट के खातिर ही सही
हाथ सबके सामने पटक रही थी .
अदम्य क्रूरता की प्रतीक थी नारी
दुसहासी थी या थी भूख की मारी
लोग कह रहे थे उससे
दूर हटो तुम , अरे भिखारी !
दूसरी ओर मैंने जो देखा
समाज भी भूखा ही था
पेट का ??
नही नही वासना का
वह मांग रहा था वासना की भीख
समाज की आँखों में दया भी ना थी
लोक लाज और ह्या भी ना थी
वह चला रहा था फब्तियों का तीर
जो बढा रहा था कलेजे का पीर
वह हंस रहा था
दुसरे की बेबसी पर
दुसरे की तड़प पर
और शायद
अपनी असमर्थता और कायरता पर भी ,
आज मै सोचता हूँ
क्या था ? मै उस दिन
उसकी सहायता का अधिकारी ?
कौन था भिखारी ?
वह समाज या वह बेबस नारी ???
beautiful poem. nice subject n theme. i hv no words